"अंतर त्याग सबसे महत्वपूर्ण त्याग मना जाता है। यदि आप भीतर से अपने प्रयासों को त्याग नहीं किया है, तो बाहरी त्याग असफल हो जाएगा। सबसे पहले बुरे गुणों का त्याग करें और अपने भीतर के पथ से अहंकार, क्रोध, कामा और घृणा के पत्थर हटा दें।"
आत्म-मनन (जिज्ञासा) ध्यान "दैनिक जीवन में योग" प्रणाली का एक मूलभूत पक्ष है। इस प्रणाली में आसनों और प्राणायामों के अभ्यास क्रमिक रूप से विकसित किये जाते हैं और उसी रूप में एकाग्रचित्तता और ध्यान के अभ्यास भी एक-एक कर, चरणबद्ध रूप से विकसित किये जाते हैं।
"आत्म-मनन ध्यान" की तकनीक हमें आत्म नियंत्रण और आत्म विकास के माध्यम से आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करती है। इसका उद्देश्य हमारे भीतर विद्यमान दिव्य "आत्मा" का अनुभव करना या उसकी अनुभूति करना है। ऐसे सर्वोच्च उद्देश्य को रातों-रात प्राप्त नहीं किया जा सकता, अपितु इसके लिये एक शिक्षक (गुरू) द्वारा आत्म अनुशासन, निरन्तर अभ्यास, पथ प्रदर्शक के मार्ग दर्शन की आवश्यकता होती है।
"आत्म-मनन ध्यान" इस प्रश्न के साथ प्रारंभ होता है "मैं कैसे हूँ ?" जिससे जीवन के सर्वाधिक मूलभूत प्रश्न "मैं कौन हूँ?" का उत्तर अन्तत: मिल जाता है।
ध्यान के अभ्यास में हम आध्यात्मिक ज्ञान, (पराविद्या) को प्राप्त करते हैं, जो शाश्वत और अपरिवर्तनशील है। यह बौद्धिक ज्ञान (अपराविद्या) से बहुत अधिक भिन्न है। आध्यात्मिक ज्ञान सिखाया नहीं जा सकता, इसे केवल अपने स्वयं के अनुभव से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह अनुभूति के माध्यम से हृदय में स्वयं अविर्भूत हो जाता है, जब व्यक्ति ब्रह्माण्ड सिद्धान्तों का अनुसरण करता है, मंत्र का अभ्यास करता है, ध्यान लगाता है और गुरू का आशीर्वाद प्राप्त करता है।
आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम चेतना के सभी स्तरों की खोजबीन करें और उन पर प्रकाश डालें। इसमें चेतन मन, अवचेतन मन और अचेतन मन सम्मिलित हैं। चेतना के इन स्तरों की सन्तुष्टि पूरी तरह से प्रदर्शित और विशुद्ध होनी चाहिए। यह केवल तभी हो सकता है जब हम इसको पूरी जागरूकता के साथ-ध्यान के माध्यम से करें। तब सर्वोच्च चेतना के द्वार खुलेंगे जिससे दिव्य आत्मा के दर्शन हो सकेंगे।
"आत्म-मनन ध्यान" में प्रारंभिक अभ्यास, पूर्ण शारीरिक और मानसिक तनावहीनता प्राप्त करना है। फिर मानस-दर्शन और कल्पना के अभ्यासों के माध्यम से एकाग्रता की योग्यता बढ़ाना अभ्यास का विषय है। फिर मन हमारी अपनी चेतना की सारगर्भिता की ओर जिज्ञासा हेतु मुड़ जाता है - हमारे निजी गुणों, कल्पनाओं और विचारों के स्वभावों की ओर। इसी के साथ-साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति पूर्व-कल्पित विचारों और मतों से स्वयं को अलग कर ले। इस पूरे अभ्यास के समय, पूर्ण अन्तर्दृष्टि और ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से निष्पक्ष विचारधारा को अंगीकार करना चाहिए।
अत: पुराने घिसे-पिटे मार्गों से ही चिपटे न रहें, "भली-भाँति ज्ञात पाठों" को न दोहराएँ और भावनाओं में बंध कर न रहें। चेतना की गहराइयों में डुबकी लगाने के लिये प्रतिभा की सीमाओं के परे जाने, झाँकने के लिये बाहर निकलें।
हम मानते और विश्वास करते हैं कि हम अपने आपको भली-भाँति जानते हैं, किन्तु जब हम स्वयं के भीतर गहराई से झाँकते हैं तब हमें ऐसी बहुत सारी बातें मिलेंगी जिन्हें हम नहीं जानते। कदाचित हम अनुकम्पा, समझ, प्रेम, विनम्रता, धैर्य, अनुशासन, निष्ठा, निश्चय, संतोष, प्रसन्नता और गहन आन्तरिक परमानन्द जैसे सुन्दर, सार्थक गुणों की विद्यमानता पर अचम्भित, आश्चर्य चकित हैं। जैसे-जैसे हम इन गुणों के बारे में अधिकाधिक सजग या जागरूक होते हैं, हम इन गुणों में अपने स्व के प्रति, अपने आध्यात्मिक विकास और अपने सहचर प्राणियों से संबंधों के प्रति एक महान् सहायक तत्त्व प्राप्त करते हैं।
तथापि, कई मामलों में निरर्थक, नकारात्मक पक्ष भी हमको चौंका देते हैं। ये पक्ष हमारे आध्यात्मिक विकास को बाधित करते हैं और हमारी आत्मा और हमारे चतुर्दिक वातावरण में अव्यवस्था फैलाते हैं। स्वयं को ईमानदारी से परखें। क्या आप व्यग्र, लालची, महत्त्वाकांक्षी, द्वेषी, असहिष्णु, क्षमा न करने वाले, ईष्र्यालु, हिसंक स्वभावी, विफल, जटिलताओं से घिरे हुए व्यक्ति हैं? प्राय: हम ऐसी विशिष्टताओं को जानते नहीं और हम अपना यह मत बना लेते हैं कि हमने इन पर पहले ही विजय प्राप्त कर ली है। किन्तु कई बार ये बातें फिर सम्मुख प्रगट हो जाती हैं। ये सभी हमारे अवचेतन मन में बीज के रूप में पड़ी रहती हैं, जो अनुकूल परिस्थितियों में स्वयं अंकुरित हो जाती हैं।
हमारा जीवन-अस्तित्व चेतना के 4 स्तरों के क्षेत्र में चलता, सक्रिय रहता है:
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अचेतन
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अवचेतन
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सचेतन
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पराचेतन
हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के चिह्न अचेत मन में हैं। अवचेतन मन में हमारे वर्तमान जीवन के सभी अनुभव और उनकी छापें हैं, जो हमारी आत्मा के गर्भाशय में प्रवेश से ही अभिलेखित और संगृहित हो गई हैं। अवचेतन मन में वे सब बातें हैं जो हमने भोगी हैं, अनुभव की हैं। सभी इन्द्रियों की छाप चेतन व अवचेतन की तुलना व्यक्ति एक टेप रिकार्डर से कर सकता है जो सभी ध्वनियों को संगृहित कर लेता है जो माईक्रोफोन द्वारा खोज (पिकअप) कर ली जाती हैं। अवचेतन मन हर बात का अभिलेख रिकार्ड करता है- अच्छे और सुखदायी को, साथ दबा दी गई समस्याओं, मिश्रित एवं आक्रामक भावनाओं, डरों, उदासीनता, आशाओं और इच्छाओं को।
हम जब ध्यान में अपने भीतर गहरी डुबकी लगाते और झाँकते हैं तब इन अवचेतन मन में इन सुप्त बीजों से सजग हो सकते हैं। उनके कारणों और संबंधों को पहचान लें और उनके विश्लेषण के साथ ही हमारे लिये संभव हो जाता है कि हम उनको छोड़ दें और सचेत रहते हुए उनसे छुटकारा पा लें।
एक उदाहरण:
कोई व्यक्ति एक प्रत्यक्षत: निराधार डर से पीडि़त है और एक मनोचिकित्सक की सहायता लेता है। विश्लेषण द्वारा यह जानकारी मिलती है कि यह डर बचपन में एक विशेष घटना के कारण शुरू हुआ था। इसका कारण ज्ञात होने पर डर का महत्व कम हो जाता है और पीडि़त, प्रभावित व्यक्ति सचेत रूप से इसको दूर कर सकता है।
अवचेतना मे संग्रहीत अज्ञात और उलझनों की विगत घटनाएं हमको केवल तब तक ही परेशान करती है जब तक हमारे चेतन मन को उनका असली संबंध पता नहीं पड़ जाता। इस ज्ञान के प्रकाश में, ये छायाएं तुरन्त ओझल हो जाती हैं।
"आत्म-मनन ध्यान" के अभ्यास में हम अपना आन्तरिक संसार ढूँढ़ते हैं और यह सीखते हैं कि हमारा मन कैसे कार्य करता है। यही अवचेतन और चेतन मन का संबंध है।
मन एक विशाल शक्तिशाली नदी के समान है। नदी को बहुत देर तक अवरुद्ध नहीं किया जा सकता या उसकी चंचलता को नष्ट नहीं किया जा सकता। यदि हम पानी की निकासी के मार्ग का प्रावधान किये बिना एक बांध बनायें तो देर-सवेर एक महा जल प्लावन ही होगा। बांध टूट जाता है और उफनती हुई जलधाराओं से धरती पर भयंकर बाढ़ आ जाती है। यदि हम अपने मन को अति कठोरता से रोकें और अपनी इच्छाओं और भावनाओं को पूरी तरह दबायेंगे तो दुष्परिणामकारी तनाव हमारे अवचेतन मन में एक विस्फोट के समान फूट पड़ता है- आन्तरिक दबाव अत्यधिक बड़ा हो जाता है।
तथ्यत: हम मन को ठहरने का आदेश नहीं दे सकते तथापि हम इसे एक आदेश उसी प्रकार दे सकते हैं जैसे व्यक्ति बाढ़ और नुकसान से बचने के लिए नदी का प्रवाह एक अन्य दिशा में कर सकता है। "आत्म-मनन ध्यान" के अभ्यास में हम अपनी चेतना के उपकरणों को नियन्त्रित और विनियमित करना सीखते हैं। इसके लिए अपने स्व और अपने आन्तरिक मनोभावों को पहचानना, समझना और सीख लेना आवश्यक है। इसके माध्यम से थोड़े समय में ही हम अपने उन विचारों के बीच में आ सकते हैं और उनको उस दिशा में जाने से रोक सकते हैं जो अन्यथा समस्याओं और दु:खों को जन्म दें।
"आत्म-मनन ध्यान" से हम स्वयं को और अन्य लोगों को समझना सीखते हैं। हम स्वयं को और अन्यों को क्षमा करना सीखते हैं। हम अपने अवचेतन को शुद्घ करते हैं और धीरे-धीरे अपनी आन्तरिक बाधाओं और जटिलताओं को खोते जाते हैं। हमारी सोच सुव्यवस्थित और स्पष्ट हो जाती है और इससे हम जीवन में अनेक कठिनाइयों पर सफलता पाने और उनसे बचने में सक्षम हो जाते हैं। अन्त में हम अपना सत्यसार और जीवन में उद्देश्य पहचान जाते हैं तथा आन्तरिक स्व को प्रगट करने लगते हैं।
अपने स्वयं के जीवन की परीक्षा करें। क्या आप केवल अपने भौतिक सुख को खोजते हैं या आप अनुभूति और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए प्रयास करते हैं? खाना, पीना, सोना और प्रजनन हर प्राणी के जीवन को पूर्ण करता है। यदि हम केवल उसी के लिए प्रयत्न करते हैं और किसी उच्चतर के लिए नहीं, तो हम अपना मानव सामथ्र्य व्यर्थ करते हैं। किन्तु जिनका मन अस्तित्व के अवसर के प्रति सचेत है, वे आध्यात्मिक अभ्यास - उनके धार्मिक विश्वास चाहे जो भी हों, ध्यान और प्रार्थना के लिए समय निकाल लेते हैं। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर सर्व विद्यमान है, चेतन ऊर्जा है, जो संपूर्ण सृष्टिï और सभी जीवधारियों में व्याप्त है।
"दैनिक जीवन में योग" और "आत्म-मनन ध्यान" हमें जिस लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, वह स्व (आत्म) के साथ "आत्म-ज्ञान और आत्म-अनुभूति" है।
आत्म-मनन ध्यान
प्रारंभिक स्थिति :
ध्यान मुद्रा
श्वास :
सामान्य
अवधि :
प्रारंभ में 10 से 20 मिनट, बाद में 30-60 मिनट
ध्यान-व्यायाम के लिए तैयारी (लगभग 20 मिनट)
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बैठे रहने की उस मुद्रा में आ जायें जिसमें आप आराम महसूस कर सकें और संपूर्ण व्यायाम में तनावहीन तथा निश्चल बैठे रहें।
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बैठे रहने की उस मुद्रा में आ जायें जिसमें आप आराम महसूस कर सकें और संपूर्ण व्यायाम में तनावहीन तथा निश्चल बैठे रहें।
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आप अपने कंधों के चारों ओर एक ध्यान शॉल (ऊनी वस्त्र) डाल सकते हैं।
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हाथ चिन मुद्रा में घुटनों या जांघों पर रहेंगे।
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आंखें बन्द करें।
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चेहरे की मांसपेशियों, विशेष रूप से आंखों, पलकों और मस्तक को तनावहीन करें।
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जैसे ही आप सचेत रहते हुए पेट, कोहनियों, निचले जबड़े और मस्तक को तनावहीन करते हैं, शरीर को गहनता प्राप्त होती है। जब ये "मुख्य बिन्दु" तनावहीन हो जाते हैं, तब बैठने की पूरी स्थिति तनावहीन हो जाती है।
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इस स्थिति में लगभग 5 मिनट तक रहें। अपने विचारों और भावनाओं को शान्त करें।
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ॐ उच्चारण करें और संबद्ध व्यायाम स्तर के अनुसार ध्यान व्यायाम का अभ्यास करें।
ध्यान-व्यायाम समाप्त करने के लिए
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ॐ उच्चारण करें।
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हथेलियों को जोर से रगड़ें और उनको चेहरे पर रखें और चेहरे की मांसपेशियों को गर्म करें।
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धड़ को तब तक आगे झुकाएं जब तक कि मस्तक फर्श को न छू ले। हाथों को आराम से सिर के पास फर्श पर रखें, चेहरे की मांसपेशियों में रक्त के प्रवाह को महसूस करें। थोड़ी देर इसी स्थिति में बने रहें। इस प्रकार, निश्चल बैठे रहने के बाद परिचालन प्रोत्साहित होता है और सिर को अच्छी रक्तापूर्ति होती है।
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धीरे से बिल्कुल तन जाएं और आंखें खोल लें।