अच्छे स्वास्थ्य और मानसिक विकास के लिए उचित भोजन मूल आधार है। योग ने भोजन के गुणों के आधार पर इनको तीन श्रेणियों में रखा है। ये श्रेणियां तीन गुणों को दर्शाती हैं - सात्विक, राजसिक और तामसिक*। [1]
तामसिक भोजन यथा मांस, मछली, अण्डे, मादक पदार्थ, संग्रहित किया भोजन एवं बासा, पुन: गरम किया भोजन हमें आलसी और अकर्मण्य बनाता है। राजसिक भोजन अति चटपटा होता है जो हमें अशान्त और आक्रामक बनाता है। अत्यधिक कॉफी या चॉकलेट के सेवन से भी राजसिक गुण बढ़ते हैं। तथापि, सात्विक भोजन शरीर और मन को संतुलित एवं व्यवस्थित बनाए रखता है। सात्विक भोजन दुग्ध-शाकादि से प्राप्त होता है, जिसमें पूर्ण भोज्य सामग्री अनाज, शाक-सब्जी, दालें, फल, मेवे, बीज, दूध और दूध से बने पदार्थ सम्मिलित हैं। शाकाहारी भोजन हमारे शरीर को विषहीन, स्वच्छ और शुद्ध रखता है तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाता है।
योगी लोग कई कारणों से शाकाहारी होते हैं। स्वास्थ्य पक्ष के अतिरिक्त, मुख्ïय कारण यह भी है कि सभी जीवधारी ईश्वर के बच्चे हैं - इनमें पशु-पक्षी भी शामिल हैं। हम सभी को पैदा करने वाला ईश्वर ही है। ईश्वर का प्रकाश जिस तरह से मानवों में विद्यमान है पशुओं-पक्षियों में भी है।
'विश्व प्राणी मेरी आत्मा है'
सभी प्राणी सुखी और यातनाओं से बचना चाहते हैं। पशु-पक्षी भय और पीड़ा का अनुभव करते हैं जैसे सभी मानव भय और पीड़ा का अनुभव करते हैं। पशु-पक्षी मृत्यु से डरते हैं जैसे हम मानव मृत्यु से डरते हैं। योग पशुओं को मारना और उनको खाना निषेध करता है, क्योंकि उनमें आन्तरिक (नैसर्गिक) जागरूकता है जो सभी जीवधारियों को एक चेतना से जोड़े हुए है।
एक सूक्ति है, जिसमें कहा गया है, "आप वही हैं जो आप खाते हैं।" दो तत्त्व - समाज और भोजन-पौष्टिकता, मानव विकास के प्रमुख गुणों को निर्धारित करते हैं। अनुपयुक्त भोजन न केवल हमारा शारीरिक स्वास्थ्य ही खराब करता है, अपितु मन को भी विचलित करता है। यह प्राणिक-ऊर्जा को नष्ट करता है और आक्रामक-वृत्ति, अवसाद व भय उत्पन्न करता है। हम जीवित रहने के लिए अपने अस्तित्व के हर तन्तु से चिपके रहते हैं और अपने अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य स्वतन्ïत्रता व खुशी मानते हैं। सभी पशु और जीवधारी भी स्वतंत्रता और खुशी चाहते हैं।
सभी प्राणी, यथा- पक्षी, श्वान, बिल्लियां, घोड़े व गायें सहज स्वभाव से ही भावी प्राकृतिक विनाश से आतंकित हो जाते हैं। इसी प्रकार, पशु भी अपनी संभावित मृत्यु को पहले ही भांप लेते हैं। पशुओं को बूचडख़ाने में लाने के दिनों से पूर्व ही वे बेचैन और भयभीत हो जाते हैं। मृत्यु का भय उनके पूरे शरीर में फैल जाता है और उनकी अन्त:स्रावी ग्रन्थियां 'लड़ो और उड़ो' हार्मोन्स की अत्यधिक मात्रा छोडऩे लगती है। यह हार्मोन्स पशु की शिराओं में रहते हैं। हम इन सूक्ष्म पदार्थों को जो मृत पशु शरीर के मांस में संग्रहीत होते हैं नहीं देख सकते, किन्तु निश्चित रूप से हम जब कभी इनका मांस भक्षण करते हैं, तब हम पशु में मृत्यु का भय अपने अन्दर ले जाते हैं। इसके अतिरिक्त, पशु के प्राण भी अर्थात् पशु के गुण और उसकी चेतना की प्रकृति को भी आत्मसात् कर लेते हैं। यह हमारे आध्यात्मिक विकास में बहुत बाधक है। आक्रामकता और पशु की चेतना में भय हमारे अवचेतन मन में गहरा पैठ जाता है और हमारी मृत्यु की घड़ी में पुन: उदित हो जाता है। साथ ही ध्यान और प्रार्थना में भी यह भय उत्पन्न हो जाता है, जब कभी हम स्वयं में गहन रूप से आत्मसात् होने लगते हैं। यह अगणित भय का ही परिणाम है कि बहुत से लोग ध्यान और धर्म से भय खाते हैं या विमुख रहते हैं।
तथापि किसी समय हमें इस अवचेतन भय से गुजरना जरूर चाहिए। या तो हम ध्यान, प्रार्थना और सत्कर्मों के माध्यम से स्वयं की चेतना को शुद्ध कर लें या मृत्यु के समय पर इस भय से फिर गुजरना पड़ेगा। किन्तु उस समय हम इसके संबंध में कुछ नहीं कर सकते। हमारा प्रारब्ध कर्म के सिद्धान्त के अनुसार पूरा होता है। इसकी तुलना उस पर्वतारोही की दुर्दशा से की जा सकती है जब उसकी रस्सी टूट गई हो। इस क्षण उसकी इच्छा में कोई शक्ति नहीं होती, चेतना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह वहां गिर जाता है जहां वह चाहता था या नहीं।
ऋषियों और योगियों का ध्यान न केवल इस पर रहता है कि वे क्या खाते हैं, अपितु इस पर भी रहता है कि यह भोजन कहां से आता है। क्या इसे अन्य से छीन कर लिया गया है या गलत ढंग से प्राप्त किया गया है? ऐसी परिस्थितियां उनमें नकारात्मक स्पन्दन पैदा करती है, जो ऐसा खाना खाते हैं और ये उनमें आन्तरिक अव्यवस्था उत्पन्न कर सकता है।
गुरु नानक जी एक बार एक गांव में गये, जहां एक व्यापारी और एक किसान दोनों ने उनका भारी स्वागत किया और दोनों ने ही उनको भोजन पर आमंत्रित किया। व्यापारी ने एक अति मूल्यवान जड़ाऊ थाली जिसमें अद्वितीय भोजन सामग्री थी, प्रस्तुत की। किन्तु किसान ने साधारण खाना- रोटी, प्याज और शाक-भाजी भेंट की। गुरु नानकजी ने किसान द्वारा समर्पित भोजन थाली स्वीकार कर ली और भोजन कर लिया।
व्यापारी को गहरा दु:ख हुआ और पूछा उसका भोजन क्यों अस्वीकार कर दिया। नानकजी बोले, "इस भोजन में रक्त है किन्तु जो भी हो किसान के भोजन में दूध है। और आप जानते ही हैं मैं खून नहीं पीता-खाता।" व्यापारी तिरस्कार भाव से भर गया और उसने गुरुनानक जी को आश्वासन दिया जो भोजन वह लाया था वो पूर्णरूपेण शुद्ध था, शाकाहारी भोजन था, और उसका परिवार भी पूरी तरह इस सिद्धान्त का पालन करता था। तब एक हाथ से नानकजी ने किसान की थाली से रोटी का एक टुकड़ा लिया और दूसरे हाथ में व्यापारी की थाली से एक टुकड़ा उठाया। उन्होंने दोनों टुकड़ों को जोर से निचोड़ा। व्यापारी की रोटी में से रक्त की बूंदें टपकी जबकि किसान की रोटी में से दूध बहा। नानकजी ने व्यापारी की ओर मुख किया और बोले, "आपने अपना धन धोखेबाजी और शोषण से प्राप्त किया है, जबकि इसने अपना धन ईमानदारी, सख्त मेहनत से अर्जित किया है।"
रसोइये और भोजन में एक साहचर्य होता है। अत: जब पकाएं, हमें भोजन प्रेम से पकाना चाहिए और सद्विचारों सहित भोजन पकाना चाहिए।
पशुओं से भिन्न, हम मानवों को स्वतन्त्रता है कि बुद्धि और विवेक के माध्यम से अपना मार्ग चुनें। इसी कारण हमें सही भोजन करने और अच्छे लोगों के साथ रहने पर उचित ध्यान देना चाहिए। इससे हमारी चित्तवृत्ति और हमारे आन्तरिक गुणों की प्रकृति पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हम कैसे सोचते और कार्य करते हैं, उसका भोजन के गुण पर, जिसे हम खाते हैं, और साथी जिनके साथ हम रहते हैं, सीधा असर पड़ता है। यह हमारे कर्म को भी प्रभावित करता है।
हम अपने पालतू पशुओं जैसे बिल्लियां, कुत्ते, सुअर, हेमस्टर्स आदि को प्यार करते हैं और मार भी देते हैं। किन्तु इसी के साथ हम भुना हुआ मुर्गा, मछली, गाय का मांस और सुअर के मांस के टुकड़े खाते हैं। कई लोग इस तथ्य की ओर ध्यान भी नहीं देते कि इन जीवित प्राणियों को यातनाएं दी जाती हैं और मात्र उनके मुख के स्वाद की तृप्ति के लिए उनका बलिदान किया जाता है। ईश्वर-अनुभूत व्यक्ति कहता है, "जब आप किसी को जीवन नहीं दे सकते तब आपको किसी के जीवन लेने का अधिकार भी नहीं है।" हर जीवधारी को, मानव या पशु, जिसे उसके पूर्व निधारित समय से पहले ही हिंसक रूप से मार दिया जाता है, संभवत: नक्षत्रीय साधन से एक चक्करदार (लम्बा) मार्ग अपनाना पड़ सकता है, अपने प्रारब्ध को पूर्ण करने के लिए पुन: एक उपयुक्त शरीर धारण करने के लिए। अत: वे व्यक्ति जो जीवित प्राणियों की मृत्यु का कारण बनते हैं या स्वयं अपना जीवन नष्ट करते हैं (जैसे आत्महत्या ) वे एक अति कठिन कर्म करते हैं।
मांस मृत भोजन है। मृत भोजन भी अन्दर मृत्यु ही उत्पन्न करता है। तथापि शाकाहारी भोजन हमें स्फूर्ति, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक विकास प्रदान करता है। इसी कारण स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ ही आध्यात्मिक व नैतिकता के कारण भी मांसाहारी भोजन संभवत: भोजन का सबसे बुरा तरीका है। थोड़ी देर कुछ गहनता से विचार करने और अपनी भावनाओं को अन्य प्राणियों से जोड़कर हर किसी की समझ में यह बात आ जाएगी।
मांस का 'उत्पादन' पशुओं के प्रति केवल क्रूरता ही नहीं है अपितु भोजन की यह भारी क्षति भी है। मांस की एक किलोग्राम मात्रा प्राप्त करने के लिए सात से पन्द्रह किलोग्राम अनाज और दालें उपयोग में लेना जरूरी है। हमारे किसानों द्वारा पैदा किये गये अनाज का बड़ा भाग मानव-भोजन के लिए न होकर पशुओं के लिए चारा होता है। एक और रोचक आंकड़ा यह है कि अनाजों और दालों में विद्यमान प्रोटीन का 90 प्रतिशत और कार्बोहाइड्रेट्स का 99 प्रतिशत नष्ट हो जाता है, जब मनुष्य इन वस्तुओं को 'उत्पादित' मांस के रूप में भक्षण करता है।
पशुओं की नस्लें तैयार करना पर्यावरण के लिए नितान्त प्रदूषक है। एक किलोग्राम गेहूं पैदा करने के लिए 60 लीटर पानी की आवश्यकता होती है जबकि एक किलोग्राम मांस उत्पादन करने में 2500-6000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। यह पानी फिर कीटनाशक अवशिष्टों से मिल जाता है और द्रव्य खाद के रूप में जमीन में चला जाता है, इस तरह यह भू-जल और पीने के पानी के स्तरों तक पहुंच जाता है। परिस्थिति वैज्ञानिकों ने गणना की है कि निजी घरों की तुलना में मांस के उत्पादन में दस गुणा अधिक प्रदूषण होता है और उद्योगों की अपेक्षा तीन गुणा अधिक होता है। केवल एक "बर्गर" के उत्पादन के लिए वर्षा वन को चरागाह या कृषि योग्य बनाने के लिए पांच वर्गमीटर भूमि की आवश्यकता होती है। वर्षा वन मानवता की सर्वाधिक मूल्यवान संपत्ति है। एक मांसाहारी व्यक्ति को भोजन कराने के लिए जितनी भूमि की आवश्यकता होती है उतनी ही भूमि 20 शाकाहारियों को तृप्त कर सकती है।
मांस भक्षण छोडऩा इस प्रकार केवल नैतिकता का प्रश्न ही नहीं है, बल्कि हमारी इस धरती ग्रह पर असतित्व का प्रश्न भी है। विश्व के अनेक भागों में अकाल-सूखा पडऩा, भू-जल स्तर की समस्याएं, मूल्यवान स्रोतों का विश्वव्यापी विनाश, धरती का पर्ती पडऩा और मौसम का ताण्डव - ये सभी समस्याएं हमारी पौष्टिकता संबंधी व्यवहार से सीधे प्रभावित होती हैं। हमें इस ग्रह पर जीवन के अद्वितीय और अत्यधिक ज्ञान जन्य संतुलन के बारे में अति सचेत हो जाना चाहिए। हमें इसके प्रति जागरूक होना चाहिए कि विकृति, लोभ, सुविधा और अज्ञान के कारण मानव इस अति नाजुक संतुलन को नष्ट करने की प्रक्रिया में लगा है। लेखक और मानववादी लियो टाल्सटॉय ने इसे बहुत ही ठीक प्रकार से कहा था, "जब तक बूचडख़ाने हैं, युद्ध क्षेत्र भी हैं।" हम विश्व में सुख और शान्ति कैसे स्थापित कर सकते हैं जब हम 'छोटे भाइयों' को दस लाख गुना अधिक संख्या में यातना पहुंचाते हैं और उनको मार डालते हैं।
मानव के रूप में हमारा धर्म* है [2] सहायता करना, रक्षा करना और समर्थन करना, शोषण या नष्ट करना नहीं। एक मानव के लिए सर्वोच्च सिद्धान्त मात्र एक वाक्य में ही समाहित कर दिया गया है :
अहिंसा परमो धर्म:
अहिंसा सर्वोच्च कर्तव्य है।
किसी को मारना या घायल करने से बड़ा कोई पाप नहीं है। पशु जब वह काटा जाता है तो जिस दु:ख से वह घिरा रहता है, उससे यदि हमारे में कोई सहानुभूति नहीं है या उसकी यातना को देख नजरअंदाज कर देते हैं, तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हम मानवों को भयंकर युद्धों, पर्यावरणीय विध्वंस, कई रोगों और प्राकृतिक सर्वनाशों की यातनाएं झेलनी पड़े।