योग का सार अति प्राचीन काल में, विश्व के प्राचीनतम आध्यात्मिक ग्रंथ वेदों में दर्शाया गया है।* [1] कई शताब्दियों तक इन पाठों के लिखे जाने से पूर्व गुरुओं से शिष्यों तक इन पवित्र परम्पराओं को मौखिक रूप में ही हस्तांतरित किया जाता था। इस पद्धति से मूल संदेश ज्यों का त्यों संरक्षित रखा गया था क्योंकि संस्कृत में कोई भी छंद (पद्य), एक अक्षर भी छोड़ा या बदला नहीं जा सकता।
शिक्षाविद् विश्वास करते हैं कि वेदों के प्राचीनतम छंद और दार्शनिक पाठ उत्तर से प्रवास करके आये भारतीय पूर्वजों के आने से पूर्व ही अति प्राचीनकाल में अस्तित्व में आ चुके थे। अत: यह स्पष्ट है कि ईसा के जन्म से बहुत वर्षों पूर्व ही ये अस्तित्व में थे।
महर्षि व्यास (जो वेद व्यास के नाम से भी जाने जाते हैं) ने वैदिक छंदों का संकलन किया और उनको पाठों के रूप में लिपिबद्घ किया। कुल मिलाकर महर्षि व्यास द्वारा संग्रहीत चार वेद थे- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
वेदों में स्रोत, प्रार्थनाएं और मंत्र, साथ ही पवित्र समारोहों को करने के बारे में अनुदेश भी हैं। वेदों में विशाल दार्शनिक और आध्यात्मिक प्रवचन एवं टीकाएं हैं जो जीवन और मृत्यु, भौतिक और आध्यात्मिक, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, आत्मा और परमात्मा के विषय में हैं - इनमें ईश्वर या दिव्यता की किसी खास धारणा की सीमा के बिना ही विचार किया गया है। उस काल में वेदों का ज्ञान केवल दीक्षा प्राप्त व्यक्तियों को ही उपलब्ध कराया जाता था। योगियों और आध्यात्मिक गुरुओं ने वेदों पर स्पष्टीकरण व्याख्याएं और टीकाएं लिखीं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपनिषद् हैं जो गुरुओं और उनके शिष्यों के मध्य हुए दार्शनिक प्रवचनों के विचार-विमर्श का संकलन है। इनका संबंध वेदों के आध्यात्मिक सार से है।
अवसर आने पर वेदों और उपनिषदों में से 6 विचारों के दार्शनिक पंथों (शास्त्रों) का उद् भव हुआ था। इनमें से 3 का सीधा संबंध योग से है : वेदान्त शास्त्र, सांख्य शास्त्र और योग शास्त्र है। योग की दार्शनिक शिक्षाएं वेदान्त शास्त्र में मिलती हैं** [2]; वैज्ञानिक आधार सांख्यशास्त्र में निर्धारित किया गया है, और राजयोग के सिद्धांत और विधियों का वर्णन योग शास्त्रों में किया गया है जो ऋषि पातंजलि द्वारा लगभग 200 ईसा वर्ष पूर्व में लिखे गये थे।
एक और मौलिक ग्रन्थ भगवत् गीता है। इसका संबंध नैतिकता, विश्व की परिकल्पना और ज्ञान का सिद्धान्त तथा इन्हीं के साथ आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शक और योग के पथ पर चलकर मोक्ष प्राप्ति के उपाय आदि से है।
अनेक संत और आध्यात्मिक गुरु योग के संदेश को संजोकर रखते हैं और उसका प्रचार-प्रसार करते रहते हैं।
(प्रकाशक की टिप्पणी)
रचनाकार (लेखक) परमहंस स्वामी महेश्वरानन्द उन्हीं "गुरुओं की पंक्ति" से संबंधित वंशावली के भाग हैं, जिनके माध्यम से योग का संदेश जीवित रखा जाता है और आगे चलता रहता है। उनके गुरू हैं :
श्री अलखपुरी जी, हिमालय के कल्पित गुरू, जिनके बारे में कहा जाता है कि अपनी इच्छा होने पर वे अपना रूप धारण कर सकते हैं और फिर विलीन भी हो सकते हैं। उनके साथ उनके वे शिष्य हैं जो समय-समय पर प्रगट होते हैं और उन्हीं के साथ दिखाई भी देते हैं।
उनके पश्चात् परमयोगेश्वर श्री देवपुरीजी हैं जो शिव शक्ति के मूर्त रूप माने जाते हैं। श्री देवपुरीजी सीकर जिला, राजस्थान (उत्तर पश्चिम भारत) में मध्य 19वीं शताब्दी में निवास करते थे, फिर उन्होंने अपना शरीर 1944 में छोड़ दिया।
ये श्री दीपनारायण महाप्रभुजी के गुरू हैं जो स्वयं भी राजस्थान में रहे और शिक्षा दी। श्री महाप्रभुजी स्वयं ज्ञान प्राप्त ही जन्मे थे, वे प्रेम और बुद्धि के सच्चे अवतार थे। उनकी शिक्षाओं का सार है : "प्रत्येक जीवधारी को कम से कम उतना प्रेम तो अवश्य करो जितना तुम स्वयं को करते हो"। श्री महाप्रभुजी ने सन् 1963 में 135 वर्ष की आयु में यह संसार छोड़ दिया।
उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे परमहंस श्री स्वामी माधवानंद जो राजस्थान में अपने आश्रम में रहते और प्रार्थना एवं ध्यान के माध्यम से विश्व के कल्याण के लिए कार्य करते रहे। आपने अपने गुरू की जीवन कथा पर पुस्तक "लीला अमृत-श्री महाप्रभुजी का दिव्य जीवन" लिखी है। उन्होंने 31 अक्टूबर, 2003 में यह दुनिया छोड़ दी और महासमाधि ले ली।
उनके उत्तराधिकारी, श्री महामंडलेश्वर परमहंस स्वामी महेश्वरानंद (प्रसिद्ध संबोधन स्वामी जी) योग का संदेश यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया ले गये। आपने "दैनिक जीवन में योग" पद्धति की स्थापना की। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्रगति में आपकी सेवा को विश्व में व्यापक रूप से सम्मानित और मान्य किया गया है, जिसके लिए आपको अनेक अन्तर्राष्ट्रीय उपाधियां एवं पुरस्कार मिले हैं। भारत में उन्हें "योग के चिकित्सक" और "योग के आध्यात्मिक विज्ञान के आचार्य" के मानद शीर्षकों से सम्मानित किया गया है। अप्रैल 1998 में महानिर्वाण अखाड़ा द्वारा महामंडलेश्वर के पद से सुशोभित किया गया था।