हमारे जीवन का अनुभव हम को बताता है कि मनुष्यों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं, जो उनकी पूर्व वृत्तियों, भिन्न-भिन्न विचारों, अनुभवों और उद्देश्यों के अनुसार होते हैं। मानव प्रकृति में इस विविधता के अनुरूप चार योग पथ हैं जो मनुष्यों के झुकावों को ध्यान में रखकर उनके मार्ग प्रशस्त करते हैं।
हमारा 'स्व' (आत्मा) 'सर्वेश्वर' (परमात्मा) से उद् भूत है। परमात्मा की प्रकृति (स्वभाव) आनंद है, और चूंकि हमारी आत्मा उस परमात्मा का अंश है इसलिए हर व्यक्ति प्रसन्न होने के लिए आनन्द के उद्देश्य से प्रयासरत है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह ईश्वर में विश्वास करता हो या नहीं, चाहे वह इसके प्रति सचेत हो या नहीं, अन्ततोगत्वा सुखी होने के लिए प्रयत्न करता है।
हम सच्चे और अनंत आनन्द को बाहरी संसार में नहीं प्राप्त कर सकते। यह हमारे आन्तरिक 'स्व' (आत्मा) में ही स्थित है। सच्चा, वास्तविक और अनंत आनन्द केवल बुद्धिमानी, ध्यान और दैवीय अनुकम्पा से ही प्राप्त किया जा सकता है, और यह केवल वही व्यक्ति पा सकता है जो सच्चे हृदय से उसे खोजता है और उसके लिए प्रयास करता है। ईश्वर की कृपा सभी जगह है और हर समय हमारे साथ रहती है, जैसे सूर्य सदैव चमकता है चाहे आकाश बादलों से घिरा हो। ईश्वर की अनुभूति करने के लिए और उसकी अनुकम्पा के प्रति सजग होने के लिए हमें अपनी चेतना से अज्ञान के बादलों को अवश्य दूर करना होगा।
योग के चार मार्ग हमको इस लक्ष्य की ओर ले जाते हैं :
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यह कर्म का पथ है। इसका संबंध कारक (कारण) और प्रभाव के नियम से है। मनुष्य के शरीर, मन और चेतना पर हर कर्म (क्रिया) के समान प्रतिकर्म (प्रति क्रिया) का होना अनिवार्य है। यह होता ही है। एक कर्म का फल, परिणाम उसके नैतिक मूल्य पर निर्भर है और उस अन्तरभाव से सम्बद्ध है जिस भाव से यह किया गया था।
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यह ईश्वर की भक्ति और प्रेम का मार्ग है और इसमें संपूर्ण सृष्टि के लिए यही भाव बना रहता है। सृष्टि में पशु-पक्षी, मानव और संपूर्ण प्रकृति सम्मिलित है।
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यह "योग का शाही मार्ग" अथवा "अष्टांग योग पथ" मार्ग है और इसमें अन्य बातों के अतिरिक्त वे योग विधियां भी हैं जिससे हम आसनों, प्राणायाम, ध्यान और क्रियाओं के रूप में भली-भांति परिचित होते हैं।
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यह दार्शनिकता का मार्ग है। इस पथ का केन्द्र बिन्दु वास्तविकता और अवास्तविकता (माया) के मध्य अन्तर को पाने की योग्यता प्राप्त करना है। अध्ययन, अभ्यास और अनुभव से आत्मज्ञान प्राप्त करना परम उद्देश्य है।
ये चार योग मार्ग अलग-अलग मार्ग नहीं हैं। प्रत्येक मार्ग एक-दूसरे से अति निकट रूप में संबद्ध है। जब हम ईश्वर का विचार करते हैं और अपने साथी मानवीय एवं प्रकृति के प्रति प्रेम से परिपूर्ण होते हैं, तब हम भक्तियोगी होते हैं। जब हम अन्य लोगों के निकट होकर उनकी सहायता करते हैं तब हम कर्मयोगी होते हैं। जब हम ध्यान और योगाभ्यास करते हैं तब राजयोगी होते हैं और जब हम जीवन का अर्थ समझते हैं और सत्य एवं वास्तविकता की खोज के राही होते हैं, तब हम ज्ञानयोगी होते हैं।