संस्कृत में, ब्रह्माण्ड स्व आत्मा कहलाता है। वैयक्तिक आत्मा के विपरीत, आत्मा वैश्विक है। यह सभी प्राणियों में "जीवन का प्रकाश" है। आत्मा, व्यक्तिगत चेतना और मनोभाव का संबंध निम्नलिखित उदाहरण से दर्शाया जा सकता है।
आत्मा प्रकाश है, बिजली का बल्ब व्यक्ति है और लैम्प से निकलने वाली बिजली की किरण मनोभाव है। अंग्रेजी में “Spirit of the soul” (आत्मा की भावना) अभिव्यक्ति का प्रयोग किया जाता है और इस अभिव्यक्ति में यह स्पष्ट है कि यह भावना आत्मा से उद्भूत (उत्पन्न) होती है। यह 'भावना' गुण उत्पन्न करती है जैसे स्पष्ट या अस्पष्ट, मजबूत या कमजोर, भ्रमित, सुन्दर, सृजनात्मक, शिथिल आदि। किन्तु आत्मा पूरी तरह से निर्गुण है, जिसकी तुलना बादल रहित आकाश या बिना लहरों के जल से की जा सकती है। आकाश में बादल, सागर में लहरें, पर्दे पर दिखाई जा रही फिल्म सब गति का भ्रम हैं। अधिकांशत: हमारी व्यक्तिगत चेतना इस गति से मेल खाती है और ''आत्मा" की पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ बनी रहती है।
एक लैम्प के प्रतीकात्मक चित्र से, हम व्यक्तिगत चेतना की तुलना लैम्प आवरण से कर सकते हैं। कितना प्रकाश लैम्प से चारों ओर फैलेगा यह निर्भर करता है प्रकाश बल्ब कितनी ऊर्जा प्राप्त करने की क्षमता रखता है। लैम्प आवरण के गुण में भी यही बात है। लैम्प आवरण से बाहर फैलने वाले प्रकाश की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि आवरण कितना स्पष्ट और पारदर्शी है या मिट्टी- धूल भरा और गंदा है।
भावना और चेतना स्व नहीं है, अपितु स्व से निकलने वाले अंश हैं, जिससे वे प्रतिबिम्बित होते हैं। आत्मा का प्रकाश सदैव अपरिवर्तित, स्पन्दन युक्त और शुद्ध रहता है। हमारी आत्मा का प्रकाश कितने विस्तार तक बाहर फैल सकता है, हमारी चेतना के गुण पर निर्भर करता है। हमारे विचार, भावनाएं, गुण और कर्म इसको रूप देते हैं। नकारात्मक गुण और अज्ञान हमारी चमक को (Phanomen*) अंधकारमय कर देते हैं। [1] दैवीय गुण जैसे ज्ञान, बुद्धि और प्रेम इनको चमका देते हैं। हमारी उच्चतर चेतना जितनी विकसित होती है उतना ही स्पष्ट, शुद्ध और पारदर्शी किरणों का आत्मा से विकिरण होता है। यदि हमारी चेतना पूरी तरह शुद्ध और निष्कलंक होती है, तो आत्मा से प्रकाश विकिरण पूर्ण सौन्दर्य और उज्ज्वलता से होता है और तब हम ज्ञान प्राप्ति या ईश्वरानुभूति की चर्चा करते हैं। साधु-संत (धार्मिक व्यक्ति) पूर्ण रूपेण शुद्ध और स्पष्ट होते हैं और वे ईश्वर के सत्य माध्यम बनते हैं। वे प्रकाश, प्रेम, दया, बुद्धि और स्पष्टता का उपदेश देते हैं - एक क्षण के लिए सन्तों के प्रभापुंज का विचार करें। तथापि आत्मा पर पर्दा डालने वाले कर्मों और अज्ञानों की कई पर्तें होती हैं, तब यह दिव्य प्रकाश उनको पार नहीं कर सकता।
आत्मा, हमारा आन्तरिक स्व, विश्व-आत्मा का सार है, जिसकी प्रकृति महा आनन्द है। अत: विश्व-आत्मा के एक अंश रूप में हर एक व्यक्ति का आन्तरिक सार आनन्द-मात्र आनन्द ही है।
मानव शरीर, इन्द्रियों के अवयव, बुद्धि और मन ये सब आत्मा के उपकरण हैं। एक भजन में परम हंस स्वामी माधवानन्दजी कहते हैं :-
"मेरे बन्धु मैंने एक आश्चर्यजनक बग्घी - रथ (शरीर) को देखा, जिसको दस घोड़े (दस इन्द्रियां) खींच रहे थे। मन की लगाम थी, जो घोड़ों पर नियन्त्रण कर रही थी और बुद्धि रथवाहक (गाड़ीवान) जो इस रथ को चला रहा था। इसमें आत्मा बैठी थी - राजा, अपने विश्वस्त मंत्री, विवेक के साथ। गाड़ी में विभिन्न साजों (इन्द्रिय अवयवों, विचारों) का संगीत गूंज रहा था। यदि ज्ञान का प्रकाश इस गाड़ी (कोच) में आ जाता है तो यह हमेशा के लिए प्रकाशित हो जाती है।"
विवेक बुद्धि का परम शुद्ध प्रकार है। यह सभी विचारों, भावनाओं और अनुभवों पर सावधानीपूर्वक विचार करता है। वास्तविकता के अनुसार ही निर्णय लेता है, अहम् भाव की इच्छा के आधार पर नहीं, जो मन अधिकांश रूप में करता है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है, अंधकार का अर्थ अज्ञान है। जहां प्रकाश आता है, वहां अंधकार गायब हो जाता है। ज्ञान के साथ भी यही है, जब हमारे अन्दर ज्ञान का उदय हो जाता है, अज्ञान तुरंत रफूचक्कर हो जाता है।
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हम कौन हैं? क्या हम शरीर हैं? यह विश्वास करना कि हम शरीर हैं, अज्ञान है।
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वास्तविकता में हम शुद्ध चेतना-चैतन्य, चित्त हैं।
हम चमड़ी, हड्डी, रक्त, मांस, नाडिय़ां या ग्रन्थियां नहीं हैं। हम कहते हैं, ''यह मेरा खून है, ये मेरे अंग हैं, मेरी भावनाएं, विचार, सपने और अनुभव हैं।" किन्तु इन सब वस्तुओं के बारे में ऐसे कहने वाला यह कौन है? वह कौन है जो जानते हुए या अनजाने में 'मैं' और 'मेरा' शब्द उच्चारण करता है।
उदाहरण के लिए एक प्याज लें। हम इसे हाथ में लेते हैं और बिना कुछ भी विचार किए एक 'प्याज' के रूप में पहचानते हैं। अब हम इसके ऊपर के एक के बाद छिलके हटाते हैं। इनको हम प्याज के हिस्से "प्याज के छिलके” कहते हैं। यह अब प्याज नहीं है। किन्तु अब प्याज का क्या शेष रह जाता है? क्या ''प्याज'' इन छिलकों के योग का ही एक नाम है? संभवत: ऐसा नहीं हो सकता। एक प्याज, जिसमें से एक पौधा अस्तित्व में आता है, जब इसे बोते हैं, वह कुछ अलग-अलग छिलकों के रूप में जोडऩा न होकर कुछ अधिक विशद, अधिक संगठित वस्तु है।
आत्मा भी इसके भागों के कुल जोड़ से भी अधिक अनन्त है। आत्मा हमारे अन्दर रहती है। कोई यह नहीं देख सकता है कि यह किस प्रकार गर्भ में प्रवेश करती है या किसी मृत व्यक्ति के शरीर को कैसे छोड़ जाती है। यह आती और जाती है। शरीर बदलती है, जिस प्रकार हम अपने वस्त्र बदलते हैं। आत्मा, स्व कभी जन्म नहीं लेती। यह अमत्र्य, शाश्वत, दिव्य और अपरिवर्तनीय है।
आत्मा को स्वयं विकसित होने की आवश्यकता नहीं होती, यह पूर्ण है। केवल चैतन्य को शुद्ध और विकसित किया जाना चाहिए, जिससे यह अपनी वास्तविक प्रकृति को समझ सके। आत्मा ही स्वयं में जीवन है- शुद्ध ऊर्जा। उदाहरण के लिए, एक वृक्ष के एक बीज में एक पूरा वृक्ष पहले ही समाया हुआ है। वह ऊर्जा जो सभी वस्तुओं को सामने लाती है, जिससे सब कुछ सामने आ जाता है, वह आत्मा है। आत्मा ईश्वर का सारांश है। यह दैवी नहीं, अपितु स्वयं ईश्वर है। पवित्र नहीं, किन्तु पवित्रता स्वयं ही है। आत्मा एक प्रकाश के समान है, कभी न बुझने वाली ज्योति। यह हमारे अन्दर का प्रकाश है- हमारे कर्मों द्वारा ढका और छुपा हुआ। जिस प्रकार अग्नि धुएं से ढक जाती है या एक हीरा धूल और गन्दगी की परतों के कारण पहचाना नहीं जाता है।
कोई ज्योति, चाहे मोमबत्ती हो या टार्च या लकड़ी का जलता हुआ एक गट्ठर, वास्तविकता में एक ही बात है। अग्नि को विकसित होने की आवश्यकता नहीं, यह है और सदैव अग्नि ही रहेगी। हर लौ का गुण एक ही है - छोटी सी चिंगारी में भी ऊर्जा की अनन्त शक्ति समाहित है। जब बहुत सारी लौ इकट्ठी हो जाती हैं, तब एक असीम शक्ति बन जाती है- सूर्य। इससे निकलने वाला प्रकाश अत्यधिक शक्तिशाली है। इसी दृष्टान्त को प्रकाश के पूर्ण सामर्थ्य में निरूपित करते हुए हम एक महात्मा, एक महान् आत्मा, एक सन्त या दिव्य पुरुष अथवा अवतार की चर्चा करते हैं।
वेदान्त दर्शन में, योग के मूल दर्शन में आत्मा को सत् चित आनन्द कहा गया है। सत् का अर्थ सत्य, चित का अर्थ चेतना, आनन्द का अर्थ परमानन्द है। आत्मा या स्व, इस प्रकार सत्य है। यह चेतन और आनन्दमय है और यह स्व सभी प्राणियों का स्व (आत्मा) है।
कई लोग पूछते हैं कि ध्यान करते समय उनको क्या सोचना चाहिए और किस पर चित्त एकाग्र करना चाहिए। प्रारम्भ में व्यक्ति श्वास पर, शरीर पर या मांस पेशियों की विश्राम स्थिति पर मन एकाग्र करता है। बाद में व्यक्ति पूर्ण चन्द्र, सूर्योदय या सूर्यास्त पर ध्यान लगा सकता है। किन्तु वास्तविक ध्यान आत्मचिंतन, आत्मा पर ध्यान एकाग्र करना है। इस स्तर पर हमारी एकाग्रता शारीरिक स्थिति से परे चली जाती है और ध्यान मुद्रा में विचारों से ग्रस्त नहीं होती। सभी पार्थिव इच्छाओं और विचारों के साथ समस्त कल्पना भी विसर्जित हो जाती है। आत्मचिंतन में प्रकाश या चन्द्र अथवा सूर्य की झलक नहीं है। किसी जाग्रत होती कुण्डलिनी, खुलते चक्र या अतिस्वाभाविक शक्तियों की उपलब्धि का विचार भी नहीं है। ये सभी वास्तविकता में शिशु-स्तरीय ध्यानावस्थाएं हैं। ऐसे उपायों से न चिपकें केवल आत्मचिंतन पर ही ध्यान करें। सदैव इसके प्रति सचेत रहें - भाव और अनुभव यही करें। मन को स्थिरता पर लाने के लिए और एकाग्रता की शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए मंत्र एक सहायक उपकरण के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। मंत्र का उपयोग मन को शुद्ध और स्वतन्त्र करता है, जिससे आत्मा का उदय हो जाए।
अनुभूति के स्तर पर योगी का मात्र एक ही विचार रहता है : "मैं कौन हूं?" योगी की यह परिकल्पना न केवल ध्यानावस्था में अपितु हर क्षण भी और जीवन की हर परिस्थिति में रहती है। यह उसके स्व की पुकार है, उसके हृदय की गति, उसकी आत्मा है। योगी यह नहीं सोचता, "मेरे प्रभु, मैं आपके निकट आने का प्रयत्न कर रहा हूं।" अपितु कहता है; "मेरे प्रभु, मेरे निकट आ जाओ।" हम मानव प्राय: अपने को दुर्बल और असहाय समझते हैं। हम सोचते हैं, ईश्वर बहुत दूर है और उस तक पहुंचना कठिन है। किन्तु ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। ईश्वर निश्चित रूप से हमारे पास आने का मार्ग खोज लेगा। ध्यान में उच्च विचारों और विश्वास पूर्ण विचारों का विकास करना ही उद्देश्य होना चाहिए,क्योंकि विचारों में महान् शक्ति होती है और कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है।
हम ध्यान में जब प्रगति करते हैं तो आध्यात्मिक परिकल्पना विकसित होने की योग्यता आती है। जब हमारी आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड में यात्रा (नक्षत्र यात्रा) करती है तब मन और चेतना हमारे स्व- आत्मा की आंखें बन जाते हैं। जिस प्रकार एक मोटर कार की आगे की बत्तियां हमारे सामने के मार्ग को प्रकाशित करती है, इसी प्रकार यह आत्मा सभी परिकल्पना कर लेती है और इस अनुभव तथाज्ञान को हमारी चेतना के पास भेज देती है तथापि सबसे पहले हमें अपनी आत्मा हर जीवनधारी में, हर अणु में और सभी तारों एवं नक्षत्रों में पहचाननी चाहिए। इसका अर्थ है कि हम उस अवस्था तक प्रगति कर लें कि हम सभी जीवधारियों और वस्तुओं में अपने आपको पहचान सकें। हमें अपनी पहचान किसी एक दार्शनिकता, धर्म, राष्ट्रीयता, लिंग अथवा जाति से नहीं करना चाहिए, अपितु उस एकता को खोजना चाहिए जो सभी बाहरी दिखावटों से ऊपर है।
आज के विश्व में द्वन्द्वता प्रचलित है, किन्तु एक बुद्धिमान व्यक्ति विभिन्न रूपों में दिखने वाली एकता को पहचान सकता है। जब बुद्धिमान व्यक्ति अपने सामने दो पात्र (जग) देखता है, तब वह सचेत हो जाता है कि जिस मिट्टी से ये बने हैं वह एक ही है। इस प्रकार आत्मानुभूत, ईश्वर अनुभूत, बाहरी रूप नहीं देखता, अपितु इसके अन्दर की वास्तविकता, आत्मा, स्व को देखता है।
तथापि इस बात को बौद्धिक रूप से समझ लेना ही काफी नहीं है, व्यक्ति को अपने भीतर अधिक गहनता से यह मानना और अनुभव करना जरूरी है। हमने जब एक बार अपनी आत्मा की आवाज सुन ली है, तब हम किसी सिद्धि या चमत्कार की इच्छा नहीं रखते। प्रसन्न रहने के लिए अब हमें किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। हमें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत नहीं रहती जो हमारी सहायता के लिए हाथ बढ़ाए, अपितु हम दूसरे की सहायता करने के लिए तैयार रहते हैं, क्योंकि हम जानते हैं "मैं आत्मा हूं और यही आत्मा अन्य लोगों में भी रहती है। हम दो नहीं, एक हैं। हम अलग-अलग शरीरों में निवास करते होंगे किन्तु शरीर परिवर्तनीय है। हमारी वास्तविकता एकता में है जो अमत्र्य है।"
जब तक हम द्वंद्वता विचार रखते हैं, पृथकता के विचारों को, हम बड़ी भूल करते हैं। हम उसी क्षण स्वयं की सहायता करते हैं जब हम दो होने के विचारों पर सफलता पा लेते हैं। फिर हम समझ जाते हैं कि यह संसार हमारे मन का ही निरूपण है, जिसे वास्तव में हमारे मन ने ही बनाया है जैसा हम इसे अपने सामने देखते हैं। हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि का सब कुछ परिवर्तनीय और सागर में लहरों के समान अस्थिर है। कुछ ही समय में सभी लहरें समुद्र में वापस डूब जाती हैं और इसमें समाहित हो जाती हैं। एक दिन यह संसार भी, जैसा हम इसे जानते हैं, नष्ट हो जाएगा और हम सब जगह जो कुछ देखेंगे वह सर्वोच्च ईश्वर, हमारी आत्मा है।
अत: ध्यान में आत्मचिंतन का अभ्यास करें। जान लें कि आप मजबूत, शुद्ध, प्रसन्न और अमर हैं। आप स्व हैं! स्व, में कोई डर, कोई उदासी और कोई पाप नहीं है। सांसारिक जीवन की निंदा नहीं करनी है। इन सब के बावजूद, हम इस संसार में ही रहते हैं और यह संसार हमें आश्चर्यजनक अनुभव प्रदान करता है। अत: हमें स्वयं के लिए जीवन कठिन नहीं बनाना चाहिए, लेकिन फिर भी जीवन का आनन्द लें और स्वयं को धिक्कारने से स्वतन्त्र कर लें, क्योंकि हम सदैव सही मार्ग पर चलने का सद् प्रयास करते हैं।
अब, वर्तमान में ही जियें। भूतकाल के बारे में मत सोचें। बीता कल चला गया और फिर, दुबारा वापस नहीं आयेगा। साथ ही "अच्छे" भविष्य के स्वप्न भी न देखें। भविष्य अभी यहां नहीं है और हम उसके पास कभी नहीं पहुंचेंगे, क्योंकि भविष्य भी कभी-न-कभी वर्तमान ही होगा। आने वाला कल तो कल ही होता है और परसों का दिन हमेशा परसों ही होता है। सदैव केवल वर्तमान में ही जीयें। जब हम इसके प्रति सचेत हो जाते हैं, तब हम समय से ऊपर आ जाते हैं और हम एक पर्यवेक्षक तथा समस्त परिवर्तन के साक्षी के रूप में जीवन यापन करते हैं।
हमारी आत्मा ही दिव्य स्व है।
सभी इसको पहचान लें और अपना प्रेम इसी को समर्पित कर दें।